Tuesday, 15 September 2015

अब कहाँ दूसरों के दुःख से दुखी होने वाले - पठन सामग्री और सार NCERT Class 10th Hindi

पठन सामग्री, अतिरिक्त प्रश्न और उत्तर और सार - अब कहाँ दूसरों के दुःख से दुखी होने वाले स्पर्श भाग - 2

सारांश

इस पाठ में लेखक ने मानव द्वारों अपने स्वार्थ के लिए किये गए धरती पर किये गए अत्याचारों से अवगत कराया है। पाठ में बताया गया है की किस तरह मानव की न मिटने वाली भूख ने धरती के तमाम जीव-जन्तुओं के साथ खुद के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी है।

ईसा से 1025 वर्ष पहले एक बादशाह थे जिनका नाम बाइबिल के अनुसार सोलोमेन था, उन्हें कुरआन में सुलेमान कहा गया है। वह सिर्फ मानव जाति के ही राजा नहीं थे बल्कि सभी छोटे-बड़े पशु-पक्षी के भी राजा थे। वह इन सबकी भाषा जानते थे। एक बार वे अपने लश्कर के साथ रास्ते से गुजर रहे थे। उस रास्ते में कुछ चीटियाँ घोड़ों की टापों की आवाज़ें सुनकर अपने बिलों की तरफ वापस चल पड़ीं। इसपर सुलेमान ने उनसे घबराने को न कहते हुए कहा कि खुदा ने उन्हें सबका रखवाला बनाया है। वे मुसीबत नहीं हैं बल्कि सबके लिए मुहब्बत हैं। चीटियों ने उनके लिए दुआ की और वे आगे बढ़ चलें।

ऐसी एक घटना का जिक्र करते हुए सिंधी भाषा के महाकवि शेख अयाज़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक दिन उनके पिता कुएँ से नहाकर घर लौटे तो माँ ने भोजन परोसा। जब उन्होंने रोटी का एक कौर तोड़ा तभी उन्हें अपनी बाजू पर एक काला च्योंटा रेंगता दिखाई दिया। वे भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए और पहले उस बेघर हुए च्योंटे को वापस उसके घर कुएँ पर छोड़ आये।

बाइबिल और अन्य ग्रंथों में नूह नामक एक पैगम्बर का जिक्र मिलता है जिनका असली नाम लशकर था परन्तु अरब में इन्हें नूह नाम से याद किया जाता है क्योंकि ये पूरी जिंदगी रोते रहे। एक बार इनके सामने से एक घायल कुत्ता गुजरा चूँकि इस्लाम में कुत्ते को गन्दा माना जाता है इसलिए इन्होनें उसे गंदे कुत्ते दूर हो जा कहा। कुत्ते ने इस दुत्कार को सुनकर जवाब दिया कि  ना मैं अपनी मर्ज़ी से कुत्ता हूँ और ना तुम अपनी पसंद से इंसान हो। बनाने वाला सब एक ही है। इन बातों को सुनकर वे दुखी हो गए और सारी उम्र रोते रहे। महाभारत में भी एक कुत्ते ने युधिष्ठिर का साथ अंत तक दिया था।

भले ही इस संसार की रचना की अलग-अलग कहानियाँ हों परन्तु इतना तय है की धरती किसी एक की नहीं है। सभी जीव-जंतुओं, पशु, नदी पहाड़ सबका इसपर सामान अधिकार है। मानव इस बात को नहीं समझता। पहले उसने संसार जैसे परिवार को तोड़ा फिर खुद टुकड़ों में बँटकर एक-दूसरे से दूर हो चुका है। पहले लोग मिलजुलकर बड़े-बड़े दालानों-आंगनों में रहते थे पर अब छोटे-छोटे डिब्बे जैसे घरों में सिमटने लगे हैं। बढ़ती हुई आबादी के कारण समंदर को पीछे सरकाना पड़ रहा है, पेड़ों को रास्ते से हटाना पड़ रहा है जिस कारण फैले प्रदूषण ने पक्षियों को भागना शुरू कर दिया है। नेचर की भी सहनशक्ति होती है। इसके गुस्से का नमूना हम कई बार अत्यधिक गर्मी, जलजले, सैलाब आदि के रूप में देख रहे हैं।

लेखक की माँ कहती थीं की शाम ढलने पर पेड़ से पत्ते मत तोड़ो, वे रोयेंगे। दीया-बत्ती के वक़्त फूल मत तोड़ो। दरिया पर जाओ तो सलाम करो कबूतरों को मत सताया करो और मुर्गे को परेशान मत करो वह अज़ान देता है। लेखक बताते हैं उनका ग्वालियर में मकान था। उस मकान के दालान के रोशनदान में कबूतर के एक जोड़े ने अपना घोंसला बना लिया। एक बिल्ली ने उचककर दो में से एक अंडा फोड़ दिया। लेखक की माँ से दूसरा अंडा बचाने के क्रम में फूट गया। इसकी माफ़ी के लिए उन्होंने दिन भर कुछ नहीं खाया और नमाज़ अदा करती रहीं।

अब लेखक मुंबई के वर्सोवा में रहते हैं। पहले यहाँ पेड़, परिंदे और दूसरे जानवर रहते थे परन्तु अब यह शहर बन चुका है। दूसरे पशु-पक्षी इसे छोड़े कर जा चुके हैं, जो नहीं गए वे इधर-उधर डेरा डाले रहते हैं। लेखक के फ्लैट में भी दो कबूतरों ने एक मचान पर अपना घोंसला बनाया, बच्चे अभी छोटे थे। खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी बड़े कबूतरों पर थीं। वे दिन-भर आते जाते रहते थे। लेखक और उनकी पत्नी को इससे परेशानी होती इसलिए उन्होंने जाली लगाकर उन्हें बाहर कर दिया। अब दोनों कबूतर खिड़की के बाहर बैठे उदास रहते हैं परन्तु अब ना सुलेमान हैं न लेखक की माँ जिन्हें इनकी फ़िक्र हो।

लेखक परिचय

निदा फ़ाज़ली

इनका जन्म 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में हुआ और बचपन ग्वालियर में बिता। ये साठोत्तर पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। आम बोलचाल की भाषा में और सरलता से किसी के भी दिलोदिमाग में घर कर सकें ऐसी कविता करने में इन्हें महारत हासिल है। गद्य रचनाओं में शेर-ओ-शायरी परोसकर बहुत कुछ को थोड़े में कह देने वाले अपने किस्म के अकेले गद्यकार हैं। इन दिनों फिल्म उद्योग से सम्बन्ध हैं।

प्रमुख कार्य

पुस्तक - लफ्जों का पुल, खोया हुआ सा कुछ, तमाशा मेरे आगे
आत्मकथा - दीवारों के बीच, दीवारों के पार
पुरस्कार - खोया हुआ सा कुछ के लिये 1999 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार।

कठिन शब्दों के अर्थ

• हाकिम - राजा या मालिक
• लश्कर (लशकर) - सेना या विशाल जनसमुदाय
• लक़ब - पदसूचक नाम
• प्रतीकात्मक - प्रतीकस्वरुप
• दालान - बरामदा
• सिमटना - सिकुड़ना
• जलजले - भूकम्प
• सैलाब - बाढ़
• सैलानी - ऐसे पर्यटक जो भ्रमण कर नए-नए विषयों के बारे में जानना चाहते हैं
• अज़ीज़ - प्रिय
• मज़ार - दरगाह
• गुंबद - मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारे के ऊपर बनी गोल छत जिसमें आवाज़ गूँजती है
• अज़ान - नमाज़ के समय की सूचना जो मस्जिद की छत या दूसरी ऊँचे जगह पर खड़े होकर दी जाती है
• डेरा - अस्थायी पड़ाव


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